Tuesday, May 10, 2011

Yaad

चिड़ियों की चेहचाहट से,
कुच्छ गुमनाम क़दमों की आहट से,
सूरज की उस पहली किरण से,
जब मेरी अचेतना की सुबह टकराती है,
तब 'याद' का क्या है!
बस यूं ही चली आती है....

उठता हूँ ये सोच कर,
कैसे कटेगी आज दोपहर,
दर्पण में मेरे प्रतिबिम्ब की छ्त्पताहट,
मुझे घबरा सा जाती है,
तब 'याद' का क्या है!
बस यूं ही चली आती है....

दफ़्तर में जब होता हूँ खाली,
फुर्सत के वही दो पल, और हाथ में चाय की प्याली,
देखता हूँ  जब खिड़की से बाहर, बादलों की दौड़ को,
अधरों पर मेरी, एक मायूस मुस्कराहट सी छा जाती है,
तब 'याद' का क्या है!
बस यूं ही चली आती है....

सांझ की अरुणिमा में,
जब बढ़ जाता है गाड़ियों का शोर,
बोझिल कदम मेरे, बढ़ते हैं घर की ओर,
इस भीड़ के सन्नाटे से, कुच्छ कोफ़्त सी हो जाती है,
तब 'याद' का क्या है!
बस यूं ही चली आती है....

निशा की कालिमा को, और चाँद के एकाकीपन को,
जब तारों की फ़ौज सजाती है,
तस्वीरों पर ज़मी धूल और आँखों की नमी, 
मुझे फ़िर यही समझाती हैं,
इन 'यादों' का क्या है!
ये तो यूं ही चली जाती हैं....

4 comments:

enshrouded said...

very nice. but at 3 am!!??

Arthur Dent said...

Thanks! Just one of those nights when the itch to express myself to me, got the better of me.Hence the odd timing :-)

August said...

yeh to bahut hi pyaari kavita likh di aapne mr.rai. Mental excreta suddenly got very beautiful :)

Arthur Dent said...

@August- Well, I guess I am decent at putting together a rhyme :-)